Tuesday, August 3, 2010

रुक के मुस्कुराने को

रुक के मुस्कुराने को

ज़िन्दगी की रज़म में यों उलझे पड़े हम
अपने मलाल पे मुस्कुराने का मौका पा लेते हैं
जब पीछे मूढ़ कर उन रास्त राहों को देखते हैं
जिनपे शाद हो हम दौड़ा करते थे
जब जबीन पे बेफिक्री का मकाम होता था
आसमान नीचे और ज़मीन ऊपर था....

योंही दौड़ते दौड़ते ना जाने वोह रास्त राह
कब पेचीदा हो चली
ज़िन्दगी की रफ़्तार यों बढ़ सी चली
कब ना जाने मजमा इकठ्ठा हो चला
और वहीँ हम अपने बचपन को ज़ाइ कर बैठे
कब ना जाने वोह गीली सी ज़मी वोह हवा की नमी
खुश्क और ख़ाक में बदल गई
वक़त यू गुज़रा के खबर ही ना हुई

फिर भी आज हम उम्मीद का दामन पकडे
अपने इतिहास के वोह पन्ने टटोलते हैं
चंद पल मुस्कुराके
फिर से ज़िन्दगी के रज़म में उलझ पड़ते हैं
जब   यह कार ख़तम होगा
तो फिर से उम्मीद हैं के राह रास्त होगी
उसी पे चलेगा कारवां
और खुदा से मुलाकात होगी.

प्रोनिल (२८ अगस्त २००६)


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रुक के मुस्कुराने को is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial 3.0 Unported License.

1 comment:

  1. Jaate jaate ruk gaye , aur is kavita ko pdhke muskura diye...

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